घर की पटरी से निकालकर हर रोज बसकी एकही खड़खड़ाहट से हिप्नोटाइज हो कर नींद की आगोश में सिसकियां लेने लगी थी मैं।
जो एक हड़बड़ाहट भरे खूबसूरत चेहरेने मेरी नींद उड़ा दी।
– “क्यों आज देर हो गई? उठने में या कपड़े ढूंढने में? “
– “अरे वही रोज का। एक कपड़ा मिल जाए दूसरा मिलता नहीं, और मिला सबकुछ तो उस दिन के मूड के हिसाब से वो जचता नहीं। “
– “ठिके रे। जब तू बड़े पैसे कमाएगा तब हर दिन के लिए नया कपड़ा खरीद लेना।”
– “हां लेकिन रोज रोज की नौ से पाच तनख्वाह से एक दिन बूढ़ा भी तो हो जाऊंगा। और तब ये चैनी शौख खरीद कर करूंगा भी तो क्या?”
– “फिर आज खरीद कर क्या करना चाहते हो?”
– “मेरा मकसद रोज एक कपड़ा पहनना नहीं है। मेरी हैसियत बढ़ाना है।
क्योंकि शौख होते हैं तभी हैसियत बढ़ती हैं।”
– “लेकिन फिर तुम ऐसे बस से नहीं आओगे?”
– “क्या पता, कल तुम भी तो नहीं आओगी?”
– “हां सो तो हैं।
लेकिन कैसे भी क्यों ना जाऊं मेरे साथ मेरी हंसी रहेगी, एक सुकून रहेगा।
क्योंकि अकसर शौख बढ़ते जाते हैं।
हम खरीदते जाते हैं।
आज कपड़े, कल गहने, मकान और गाड़ी ।
लोग समझने लगते हैं, हैसियत बढ़ गई।
लेकिन हैसियत के चक्कर में तुम समाज के हैसियत वाले अफसर में जा पहुंचते हो।
और फिर तुम्हें खुशी और हसी का ध्यान रखने की बजाय हैसियत का खयाल रहता हैं।
तुम जीते नहीं वहा।
हैसियत के गुलाम हो जाते हो।
और हैसियत तुम्हें मोहमाया देकर तुम्हारे आत्मा का अस्तित्व छीन लेती हैं।”
– “अरे बस बस ।
तुम तो ऐसे बोल रही जैसे तुम्हें बड़ा बनना ही नहीं।”
तभी शिवाजी नगर का टनल आ कर सभी तरफ अंधेरा छा जाता हैं।
बस ड्राईवर अनजाने में जोर से ब्रेक लगाता है,
तभी तन और मन दोनों उसके आत्मा के अस्तित्व पर जाकर टकराते हैं।
तब मुझे वो पूछता नहीं, तेरी हैसियत क्या है?
और मुझे डर भी तो यही है, जब एक दिन इसकी हैसियत जब बढ़ जाए तब वो यूंही चला न जाए।
– “चल अवनी, स्टॉप आ गया।, अवनी?”
और ऐसे ही दिमाग में सुबह को पकाते उसे उसकी मंजिल तक छोड़ मैं अपनी हैसियत की और चल पड़ी ।
तभी हैसियत पिछेसे केहने लगी,
“संभल कर रहना,
में बड़ी कमबख्त चीज हूं।
तुम्हारे पैसों के साथ तुम्हें भी बिक डालूंगी।”