समझौता मोहब्बत का …

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तुमने कहाँ मैने सुना….
तुमने फिर कहाँ, मैने फिर सुना…

ऐसे ही तुम कहते गये, मैं सुनती गयी|
मैं सुनती गयी, तुम कहते गये…

बड़े फ़ुरसत से चाहा, पाया, प्यार किया और फ़ुरसत से छोर भी दिया तुमने|

गुमराह हो गया वो मोहब्बत का रिश्ता, ना गुंजाइश रही उन हसीन लम्हों की|

तुम्हारी जिंदगी गुजर रही थी और मेरी कट रही थी…।

मैने वक़्त से समझौता तो इसलिए किया, क्यूंकी उसी वक़्त ने मुझे ‘ख़ुदग़र्ज़’ ही सही प्यार तो दिया !
पागल तो मैं ठहरी, जो समझ ना पाई की, प्यार फ़िल्मो की तरह तीन घंटो में सवर जायें ऐसी चित्रफित कहाँ…
ये लम्हां ऩही सफ़र है … और तुम्हे लम्हो में जीने की आदत है|

ज़ी हाँ |

शिकायतों की किताबें जलाना शुरू किया है, इसलिए शायद आज जिंदगी का रास्ता हसीन है|वरना अगर शिकायतें लेके अदालत में फिर्याद कर भी देती,तो बात एक ही होती, “वक़्त के मेहरबानी से बचकर, फिर वक़्त पे मिले फ़ैसले से ही समझौता कर लिया|”

उसका मुझे चाहना भी उस वक़्त की मेहरबानी ही तो थी, वरना शायद ही कभी इल्ज़ाम उन पे थोप के तलाक़ के दस्तख़त उस ‘वक़्त’ के नाम कर देती|

बेशक, कागजों के टुकड़ो से हक़ मिल भी जाता मुझें, लेकिन उस दर्द का हिसाब कौनसा टुकड़ा देता ..?

वो गजरे की महक उस आयने मैं धुन्दला गयी,वो प्यार रज़ाई में छिप गया है।

आज मुझे चाँद में दाग़ और भगवान में पत्थर दिखाई दिया|
क्यूंकी मरी हुई मौत ने जिंदगी का चेहरा पहन लिया ||

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