बेसब्र-ए-इश्क़|

बेसब्र-ए-इश्क़ करके, मैंने चुना एक उजाला था|
दोनों हाथों से उसे बाहों में लिये, सजा वो दिया था।

उसकी हर हरकत लाज़मी सी छू गुजरती थी, लम्हा बीत जाता था, ना जाने क्यों लम्हा कभी खाली (अकेला) न होता था।ऐसें ही कई लम्हों को काटते आधी जिंदगी हमारी सजी थी।इन दिनों बाहरी अंदरसे कई गुना उजाले से खूबसूरत बनी थी मैं।

सिर्फ एक खालीपनसा था, एक बात अंदरही अंदर खटकती रहती थी। कभी कभी मोहब्बत इतनी बेहद हो जाती थी जो उन्होंने बाहों में लेने से ही वो घबराहट, वो हलचल, वो इश्क़ की लौ शांत हो सके|
ना जाने फिर भी, वो कभी खुद होकर हमें खुद की बाहों में ना लेते थे। सोचती रहती थी मैं, ये डर कर की “ये इश्क़ हैं? या इकतरफि मोहब्बत?”

मेरे इसी बेबस सवाल पर कई घंटे खर्च करे, मैं फिर उनके उजाले में खो जाती थी।बहाना खो जाने का देती थी लेकिन, इरादा आजमाने का होता था।
लेकिन आज और आजसे पहले ऐसा कभी हुआ नहीं था, जो आज होने जा रहा था । वो जमी–आसमां की मोहब्बत से परे था।हम आज उन्हें हमारे इतना पास देखना चाहते थे, इतना कि हमारा खुद का जिस्म भी हमें महसूस ना हो।
मिलना रूह से था…. उनसे नहीं।

हमारी इसी जिद को परोसते आज रात उन्होंने वो कर ही दिया। आह…. उससे पहले की वो पास आते हमने उन्हें दूर धकेलकर उसी उजाले में‘ये लाल इश्क़ …. तुझ संग बैर …’ हायेंsss क्या शब्द थे । क्या संगीत था । क्या माहौल था। क्या वो थे, हां हम भी वहीं थे।
और गुलाब पर जाम सजा वो गाना था, जैसे शरीर से जिस्म हटाकर रूह को तराशा हो। और इस गाने को रूह के काबिल किया हो।
हाएंएं ssss…
गाने की खूबसूरती से खुद को छुड़ाकर रूह खींचा चला जा रहा था, उस लम्हे की और, उस मोहब्बत की और।
खुद को जरा ऊपर ऊपर से सजाते, हम गाने से लौटते ही, तभी उन्होंने हमपर अपना हक जमा लिया। अपना एक कदम आगे लेते लेते, एक सांस का धीमा अंतर रह गया था उस बीच की, उन्होंने खुद के अंदर छिपाए उस आग को हम पर निछावर कर दिया, एकतरफि मोहब्बत का चुभने वाला वो दाग हटाकर आज एकतरफि मोहब्बत को उन्होंने ‘इश्क़’ कर दिया था।

वाकिफ थे हम इस गहरी सच्चाई से की, उजाले का दिया जब इंसान को लपेटता हैं, आग तो लगती ही हैं। लेकिन मेरा इश्क़ राख नहीं, खुदा बना था। उनका हमें बाहोंमे लेना मौत नहीं, जिंदगी बनी थी।सांसे फुली थी लेकिन उनमें सुकुन भरा था।
जिंदगी तो जल गई थी , लेकिन अब जिंदगी जिंदगी नहीं ‘मोहब्बत’ बन गई थी। और वो मोहब्बत ‘अबद’ हो गई थी।
ऐसी मिलन-ए–मोहब्बत पर हमें गर्व नहीं, फक्र–ए–नाज़ था। ऐसा मिलन हर उस नसीबवाले पर निछावर हैं जिसका आज भी उजालेभरी मोहब्बत पर विश्वास कायम हैं। क्योंकि, सच आखिर में यहीं हैं , “मोहब्बत जलने का दूसरा नाम है। “

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