हमें मकान बनाने की चाह होती हैं।

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कुछ भीतर रह जाता हैं, हम बांटते तो हैं खुद को।
लेकिन हम बारिश की तरह पूरे खाली होते ही नहीं।

हमें आसमान नहीं बनाना होता हैं,
हमें मकान बनाने की चाह होती हैं।
इसलिए हम खाली होते ही नहीं,
हम चार दिवारे खड़ी रहे इतने खुद में रह जाते हैं।

लगता हैं सब बांट दिया हैं, किसी अपने के साथ,
लेकिन कमबख्त ये खुद को कोई चुरा ना ले इसका डर कांप देता हैं।

चुराया सिर्फ दिल या शरीर नही जाता,
कई राज़ इतने खूंखार होते हैं,
उनका चोरी होना इंसान को तहस नहस करेगा।
डर कायम रहता है, मौत की तरह।

इसलिए इंसान आसमान नहीं बनाना चाहता ना ही बना सकता हैं,
उसे मकान की दिवारे ढक लेती हैं, इतनी तसल्ली चाहिए होती हैं।

  • – पूजा ढेरिंगे
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