जिंदगी की बातें

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खुद की ही खामोशियां चुभती हैं,
फिर भी बात करने का दिल नहीं करता।
मैं अब पहले जैसा नहीं रहा,
किसी के साथ इतना खुलकर नहीं मिलता।

ना जाने कब ये बदलाव मुझ में आ गया,
मैं खामोश तो रहता हूं लेकिन अंदर खुद का ही एक शोर हैं,
मैं खुद को तसल्ली देकर शांत तो नहीं करूंगी की हां मैं कमजोर हूं।

हां कुछ बातें ऐसी घटी हैं,
जो अनचाहा थी, और जिनकी जरूरत नहीं थी।
ऐसी बातों ने मेरा इंसान से विश्वास उठता जा रहा हैं,
इंसान मैं उन्हें मानती आई थी,
जो मेरे अपने थे।
टूटता जा रहा हैं विश्वास,
उन अपनों के रोज और गिरने से।

थोड़ी टूट जरूर गई हूं,
लेकिन इस बार बिखरी नहीं हूं।
ये घटना नई जरूर घटी हैं,
लेकिन इनसे लड़ना मुझे आएगा।
हादसा नया हैं,
तजुर्बा मैने उन्ही अपनों से तो सीखा हैं।

देख रही हूं मैं,
जिन्दगी अक्सर ही ढलती जवानी में बोझ डाल देती हैं,
अपनों से अपना रिश्ता तोड़ने पर मजबूर कर देती हैं,
खूबसूरत सी मोहब्बत को रिवाजों में बांधकर अनावश्यक रूप से रिश्तेदार बना देती हैं।
दोस्तों को अपने आप में उलझा कर रखती हैं।
इस भावनाओं के दायरे में जिंदगी चलाने पर पैसों से दोस्ती करनी पड़ती हैं।
हम झुक जाते हैं,
खुद को जिंदगी में कैद कर लेते हैं।
लेकिन मैं आज भी इसी बात पर टिकी हूं,
उड़ने का हौसला जिस दिन टूट जायेगा,
समझ लेना आपकी जिंदगी ने आपको हरा दिया।
इसलिए टिके रहना, वक्त निष्पक्ष सबका होता हैं।
– पूजा ढेरिंगे

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