आज के दौर का मुसन्निफ़ (राइटर) पूछने की हिम्मत करता हैं, कहता हैं…
कल किसी अजनबी के हाथों पर मेरी किताब होगी।
उसे मेरे कद से ज्यादा मेरे अल्फ़ाजों की कद्र रहेगी। तो शायद वो फोन फैंकर उसे पढ़ता जाएगा।
ठीक वैसे ही जैसे मैंने उसे लिखा था, उसी के लिए।
पता हैं या शायद पता नहीं किताब काबिल हैं या नहीं, फिर भी जिसके लिए लिखी हैं, वो काबिल होगा यह सोच कर लिखी हैं, तुम थोड़ा रेहम करना खुद को सामने मौजूद रखकर पढ़ना।
मेरे कई नींदों का हिसाब होगा उसमें।
कई खयालातों का सफर होगा उसमें।
थोड़ी घुटन भी होगी कई किस्सों की !
वक्त देकर लिखी हैं, तुमने वक्त से ज्यादा कीमत देकर खरीदी है। लेकिन वक्त देकर पढ़ना।
क्योंकि, पैसों से ज्यादा वक्त ही इंसान के कई कर्जे चुकाता है।
मैं मुसन्नीफ (राइटर) भी जो बना हूं गुरूर सा,
तुम वाचक होकर अपना फ़र्ज़ निभाना।
इंसानियत से नहीं कला के हक़ से पेश आयेंगे।
इसलिए किताब मिलने के बाद बताना जरूर,
थोड़ा कमज़ोर दिल का हूं, इसलिए चिल्लाताही ज्यादा हूं।
कमजोर दिल ने अपना बहुत कुछ लिखा है, तुम किताब मिलने के बाद लिखना जरूर।
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